महेश बालपांडे की कविता: पर कितना कुछ लिखा गया है। चाहे वो साहित्य हो या हिंदी सिनेमा, एक से बढ़कर एक लाइनें लिखी गई हैं। किसी के लिए वक्त ज्यादा लगने लगता है तो कभी वक्त की कमी हो जाती है। कभी वक्त बदलता है तो कभी वक्त हम बदलना चाहते हैं। वक्त की कीमत अगर कोई समझ पाए, उससे बड़ी बात आज हमारे लिए क्या ही हो सकती है। खैर! डाॅ. महेश बालपांडे जी ने आप सभी के लिए एक शानदार कविता लिखी है जिसका शीर्षक है- ‘वक्त का सफर’ आइए पढ़ते हैं।
वक्त का सफर | महेश बालपांडे की कविता
मेरी यादों का यूंँ ही,
आज सिलसिला चला।
होके रुसवा बेखबर,
वों इस कदर चला।
दोस्त भी मुझे मिले,
हमराज़ हमसफर ऐसे।
जैसे कोई गुमनाम,
यूँ ही कहीं कारवांँ चला।
मंज़िल की तलाश,
मुझे हर घड़ीं रही।
घड़ी कलाई पर होकर,
हमेशा पराई रही।
समय छूटता गया,
हाथों से मेरे इस कदर।
जैसे रेंत के महलों सी,
रिश्तों की दीवारें ढई।
कभी सूरज को खौंफ था,
इन मदमस्त आंँखों का।
वही सूरज इन आँखों में,
आज आकर ढल चला।
अंत में कुछ लाइन वक्त पर कि..
ये वक़्त नूर को बेनूर कर देता है छोटे से ज़ख्म को नासूर कर देता है
कविराज :- डाॅ. महेश®बालपांडे
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नज़रों का धोखा
ओ जमाने की नज़रों से,
नज़रें बचाकर,नज़रों में हमारी।
नज़र बंद हो जाते थे।
और इन्ही नज़रों ने हमसे,
आज नज़रें फेर ली हैं।
इसे नज़रों का धोखा कहो,
या है यह नज़रों की खता।
जो नज़रें कभी हमसे चार हुई नही,
उनसे नज़रें लड़ाना भी कैसी वफा।
कविराज :- डाॅ. महेश®बालपांडे
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