Kumar vishwas love poems: प्रेम कविता कहना आसान नहीं होता, और जब बात हो डॉ. कुमार विश्वास की, तो यह एक अनुभव बन जाती है. उनकी कविताओं में न केवल प्रेम की मासूमियत झलकती है, बल्कि विरह की वेदना, मिलन की खामोशी और एहसास की खुशबू भी रच-बस जाती है. मंचीय कविता को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले कुमार विश्वास की प्रेम कविताएं आज भी युवाओं के दिल की आवाज़ हैं. चाहे वो “कोई दीवाना कहता है…” हो या “भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा हो तो हंगामा”, हर कविता एक भावनात्मक यात्रा है जो प्रेमियों के दिलों को छू जाती है.
कोई दीवाना कहता है कुमार विश्वास
यह कविता प्रेम और भावनाओं का अनोखा संगम है. इसमें कवि ने अपनी सच्ची मोहब्बत की गहराई को शब्दों में पिरोया है. यह युवाओं के बीच सबसे लोकप्रिय रचनाओं में से एक है.

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!
मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!
बदलने को तो इन आंखों के मंजर कम नहीं बदले,
तुम्हारी याद के मौसम हमारे गम नहीं बदले
तुम अगले जन्म में हमसे मिलोगी तब तो मानोगी,
जमाने और सदी की इस बदल में हम नहीं बदले
हमें मालूम है दो दिल जुदाई सह नहीं सकते
मगर रस्मे-वफ़ा ये है कि ये भी कह नहीं सकते
जरा कुछ देर तुम उन साहिलों कि चीख सुन भर लो
जो लहरों में तो डूबे हैं, मगर संग बह नहीं सकते
समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!
मिले हर जख्म को मुस्कान को सीना नहीं आया
अमरता चाहते थे पर ज़हर पीना नहीं आया
तुम्हारी और मेरी दस्ता में फर्क इतना है
मुझे मरना नहीं आया तुम्हे जीना नहीं आया
पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश में है
हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या
जहाँ हर दिन सिसकना है जहाँ हर रात गाना है
हमारी ज़िन्दगी भी इक तवायफ़ का घराना है
बहुत मजबूर होकर गीत रोटी के लिखे हमने
तुम्हारी याद का क्या है उसे तो रोज़ आना है
तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मैं भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नहीं लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ
मैं जब भी तेज़ चलता हूँ नज़ारे छूट जाते हैं
कोई जब रूप गढ़ता हूँ तो साँचे टूट जाते हैं
मैं रोता हूँ तो आकर लोग कँधा थपथपाते हैं
मैं हँसता हूँ तो अक़्सर लोग मुझसे रूठ जाते हैं
सदा तो धूप के हाथों में ही परचम नहीं होता
खुशी के घर में भी बोलों कभी क्या गम नहीं होता
फ़क़त इक आदमी के वास्तें जग छोड़ने वालो
फ़क़त उस आदमी से ये ज़माना कम नहीं होता।
हमारे वास्ते कोई दुआ मांगे, असर तो हो
हकीकत में कहीं पर हो न हो आँखों में घर तो हो
तुम्हारे प्यार की बातें सुनाते हैं ज़माने को
तुम्हें खबरों में रखते हैं मगर तुमको खबर तो हो
बताऊँ क्या मुझे ऐसे सहारों ने सताया है,
नदी तो कुछ नहीं बोली किनारों ने सताया है
सदा ही शूल मेरी राह से खुद हट गये लेकिन,
मुझे तो हर घड़ी हर पल बहारों ने सताया है।
हर एक नदिया के होंठों पे समंदर का तराना है,
यहाँ फरहाद के आगे सदा कोई बहाना है !
वही बातें पुरानी थीं, वही किस्सा पुराना है,
तुम्हारे और मेरे बीच में फिर से जमाना है
मेरा प्रतिमान आंसू मे भिगो कर गढ़ लिया होता,
अकिंचन पाँव तब आगे तुम्हारा बढ़ लिया होता,
मेरी आँखों मे भी अंकित समर्पण की रिचाएँ थीं,
उन्हें कुछ अर्थ मिल जाता जो तुमने पढ़ लिया होता
कोई खामोश है इतना, बहाने भूल आया हूँ
किसी की इक तरनुम में, तराने भूल आया हूँ
मेरी अब राह मत तकना कभी ए आसमां वालो
मैं इक चिड़िया की आँखों में, उड़ाने भूल आया हूँ
हमें दो पल सुरूरे-इश्क़ में मदहोश रहने दो
ज़ेहन की सीढियाँ उतरो, अमां ये जोश रहने दो
तुम्ही कहते थे "ये मसले, नज़र सुलझी तो सुलझेंगे",
नज़र की बात है तो फिर ये लब खामोश रहने दो
मैं उसका हूँ वो इस अहसास से इनकार करता है
भरी महफ़िल में भी, रुसवा हर बार करता है
यकीं है सारी दुनिया को, खफा है मुझसे वो लेकिन
मुझे मालूम है फिर भी मुझी से प्यार करता है
अभी चलता हूँ, रस्ते को मैं मंजिल मान लूँ कैसे
मसीहा दिल को अपनी जिद का कातिल मान लूँ कैसे
तुम्हारी याद के आदिम अंधेरे मुझ को घेरे हैं
तुम्हारे बिन जो बीते दिन उन्हें दिन मान लूँ कैसे
भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा!
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!!
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का!
मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!
कभी कोई जो खुलकर हंस लिया दो पल तो हंगामा
कोई ख़्वाबों में आकर बस लिया दो पल तो हंगामा
मैं उससे दूर था तो शोर था साजिश है, साजिश है
उसे बाहों में खुलकर कस लिया दो पल तो हंगामा
जब आता है जीवन में खयालातों का हंगामा
ये जज्बातों, मुलाकातों हंसी रातों का हंगामा
जवानी के क़यामत दौर में यह सोचते हैं सब
ये हंगामे की रातें हैं या है रातों का हंगामा
कल्म को खून में खुद के डुबोता हूँ तो हंगामा
गिरेबां अपना आंसू में भिगोता हूँ तो हंगामा
नही मुझ पर भी जो खुद की खबर वो है जमाने पर
मैं हंसता हूँ तो हंगामा, मैं रोता हूँ तो हंगामा
इबारत से गुनाहों तक की मंजिल में है हंगामा
ज़रा-सी पी के आये बस तो महफ़िल में है हंगामा
कभी बचपन, जवानी और बुढापे में है हंगामा
जेहन में है कभी तो फिर कभी दिल में है हंगामा
हुए पैदा तो धरती पर हुआ आबाद हंगामा
जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा
हमारे भाल पर तकदीर ने ये लिख दिया जैसे
हमारे सामने है और हमारे बाद हंगामा
ये उर्दू बज़्म है और मैं तो हिंदी माँ का जाया हूँ
ज़बानें मुल्क़ की बहनें हैं ये पैग़ाम लाया हूँ
मुझे दुगनी मुहब्बत से सुनो उर्दू ज़बाँ वालों
मैं हिंदी माँ का बेटा हूँ, मैं घर मौसी के आया हूँ
स्वयं से दूर हो तुम भी, स्वयं से दूर हैं हम भी
बहुत मशहुर हो तुम भी, बहुत मशहुर हैं हम भी
बड़े मगरूर हो तुम भी, बड़े मगरूर हैं हम भी
अत: मजबूर हो तुम भी, अत: मजबूर हैं हम भी
हरेक टूटन, उदासी, ऊब आवारा ही होती है,
इसी आवारगी में प्यार की शुरुआत होती है,
मेरे हँसने को उसने भी गुनाहों में गिना जिसके,
हरेक आँसू को मैंने यूँ संभाला जैसे मोती है
कहीं पर जग लिए तुम बिन, कहीं पर सो लिए तुम बिन
भरी महफिल में भी अक्सर, अकेले हो लिए तुम बिन
ये पिछले चंद वर्षों की कमाई साथ है अपने
कभी तो हंस लिए तुम बिन, कभी तो रो लिए तुम बिन
हमें दिल में बसाकर अपने घर जाएं तो अच्छा हो
हमारी बात सुनलें और ठहर जाएं तो अच्छा हो
ये सारी शाम जाब नज़रों ही नज़रो में बिता दी है
तो कुछ पल और आँखों में गुज़र जाएँ तो अच्छा हो
बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन,
मन हीरा बेमोल लुट गया रोता घिस घिस री तातन चन्दन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज गजब की हैं,
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन
भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
इस कविता में प्रेम की मासूमियत और समाज की प्रतिक्रियाओं का चित्रण मिलता है. कुमार विश्वास ने रोमांटिक भावनाओं को बेहद सहज अंदाज़ में प्रस्तुत किया है. यह कविता उनके चुटीले अंदाज़ को दर्शाती है.
भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूबकर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा।
कभी कोई जो खुलकर हंस लिया दो पल तो हंगामा
कोई ख्वाबों में आकर बस लिया दो पल तो हंगामा
मैं उससे दूर था तो शोर था साजिश है, साजिश है
उसे बाहों में खुलकर कस लिया दो पल तो हंगामा।
जब आता है जीवन में खयालातों का हंगामा
ये जज्बातों, मुलाकातों हंसी रातों का हंगामा
जवानी के क़यामत दौर में यह सोचते हैं सब
ये हंगामें की रातें हैं या है रातों का हंगामा।
कलम को खून में खुद के डुबोता हूं तो हंगामा
गिरेबां अपना आंसू में भिगोता हूं तो हंगामा
नहीं मुझ पर भी जो खुद की खबर वो है जमाने पर
मैं हंसता हूं तो हंगामा, मैं रोता हूं तो हंगामा।
इबारत से गुनाहों तक की मंजिल में है हंगामा
ज़रा-सी पी के आये बस तो महफ़िल में है हंगामा
कभी बचपन, जवानी और बुढ़ापे में है हंगामा
जेहन में है कभी तो फिर कभी दिल में है हंगामा।
हुए पैदा तो धरती पर हुआ आबाद हंगामा
जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा
हमारे भाल पर तकदीर ने ये लिख दिया जैसे
हमारे सामने है और हमारे बाद हंगामा।
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है
यह रचना मिलन की लालसा और प्रियतम को पुकारने की गहन अनुभूति कराती है. इसमें कवि ने बाँसुरी और होंठ की उपमा से प्रेम का सुंदर चित्र खींचा है. कविता में मधुरता और रोमांस का अद्भुत मेल है.
तुम अगर नहीं आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है
तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को याद संग खेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है
तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचना कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है
मन तुम्हारा हो गया कुमार विश्वास कविता
यह कविता प्रेम में समर्पण और आत्मीयता की भावना को दर्शाती है. कवि ने बताया है कि सच्चा प्यार आत्मा को भी प्रभावित कर देता है. इसमें प्रेम की गहराई झलकती है.
मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया....
एक तुम थे
जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे
जो सदा से धार के विपरीत थे
ग्राम्य-स्वर
कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के
लखकर पराजय कंपकंपाता
क्षीण सा स्वर
खो गया तो, खो गया
मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया......
लाख नाचे
मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने
किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे
तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर
जब सृष्टि के आदिम छलावे
बीज बादल
बो गया तो, बो गया,
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया......
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प्यार नहीं दे पाऊँगा कुमार विश्वास कविता
इस रचना में असमर्थता और मजबूरियों का भाव प्रकट होता है. कवि प्रेमी को सच बताने का साहस दिखाते हैं. इसमें यथार्थ और संवेदना दोनों का अद्भुत समावेश है.

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही,
ओ अमलताश की अमलकली,
धरती के आतप से जलते,
मन पर छाई निर्मल बदली,
मैं तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।
तुम कल्पव्रक्ष का फूल और,
मैं धरती का अदना गायक,
तुम जीवन के उपभोग योग्य,
मैं नहीं स्वयं अपने लायक,
तुम नहीं अधूरी गजल शुभे,
तुम शाम गान सी पावन हो,
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी,
बिजुरी सी तुम मनभावन हो,
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।
तुम जिस शय्या पर शयन करो,
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो,
जिस आँगन की हो मौलश्री,
वह आँगन क्या व्रन्दावन हो,
जिन अधरों का चुम्बन पाओ,
वे अधर नहीं गंगातट हों,
जिसकी छाया बन साथ रहो,
वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो,
पर मैं वट जैसा सघन छाँह विस्तार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।
मै तुमको चाँद सितारों का,
सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साँधू,
सुर श्रंगार भला कैसे,
मै जीवन के प्रश्नों से नाता तोड तुम्हारे साथ शुभे,
बारूद बिछी धरती पर कर लूँ,
दो पल प्यार भला कैसे,
इसलिये विवष हर आँसू को सत्कार नहीं दे पाऊँगा,
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा।
जब भी मुंह ढक लेता हूं कुमार विश्वास कविता
यह कविता संकोच, शर्म और मासूम भावनाओं को व्यक्त करती है. कुमार विश्वास ने इसे बेहद सहज और मधुर अंदाज़ में लिखा है. इसमें प्रेम की मासूमियत झलकती है.
जब भी मुंह ढक लेता हूं
जब भी मुंह ढक लेता हूं
तेरे जुल्फों के छांव में
कितने गीत उतर आते हैं
मेरे मन के गांव में
एक गीत पलकों पर लिखना
एक गीत होंठो पर लिखना
यानी सारी गीत हृदय की
मीठी-सी चोटों पर लिखना
जैसे चुभ जाता है कोई कांटा नंगे पांव में
ऐसे गीत उतर आते हैं, मेरे मन के गाँव में
पलकें बंद हुई तो जैसे
धरती के उन्माद सो गये
पलकें अगर उठीं तो जैसे
बिन बोले संवाद हो गये
जैसे धूप, चुनरिया ओढ़, आ बैठी हो छांव में
ऐसे गीत उतर आते हैं, मेरे मन के गांव में।
मैं तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक कुमार विश्वास
यह कविता प्रेम की अमरता और निस्वार्थ समर्पण को दर्शाती है. कवि कहता है कि सच्चा प्रेम किसी भी सीमा तक जा सकता है. इसमें प्रेम का अद्भुत जुनून दिखाई देता है.
मैं तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज जाता रहा, रोज आता रहा
तुम ग़ज़ल बन गईं, गीत में ढल गईं
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा
जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक रही
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन कथाएं नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर प्रीति की अल्पना
तुम मिटाती रहीं मैं बनाता रहा
एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी
गहरा ठहरा हुआ जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों मे बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का इक दीया
तुम बुझाती रहीं, मैं जलाता रहा
तुम चली तो गईं, मन अकेला हुआ
सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ
जब भी लौटीं नई ख़ुश्बुओं में सजीं
मन भी बेला हुआ, तन भी बेला हुआ
ख़ुद के आघात पर, व्यर्थ की बात पर
रूठतीं तुम रहीं मैं मनाता रहा।
क्या समर्पित करूँ कुमार विश्वास कविता
यह रचना प्रेमी को समर्पण की गहन अनुभूति कराती है. कवि ने बताया है कि प्रेम में सब कुछ अर्पण कर देना ही सच्ची भावना है. इसमें त्याग और समर्पण का भाव प्रमुख है.
बाँध दूँ चाँद, आँचल के इक छोर में
माँग भर दूँ तुम्हारी सितारों से मैं
क्या समर्पित करूँ जन्मदिन पर तुम्हें
पूछता फिर रहा हूँ बहारों से मैं
गूँथ दूँ वेणी में पुष्प मधुमास के
और उनको ह्रदय की अमर गंध दूं,
स्याह भादों भरी, रात जैसी सजल
आँख को मैं अमावस का अनुबंध दूं
पतली भू-रेख की फिर करूँ अर्चना
प्रीति के मद भरे कुछ इशारों से मैं
बाँध दूं चाँद, आँचल के इक छोर में
मांग भर दूं तुम्हारी सितारों से मैं
पंखुरी-से अधर-द्वय तनिक चूमकर
रंग दे दूं उन्हें सांध्य आकाश का
फिर सजा दूं अधर के निकट एक तिल
माह ज्यों बर्ष के माश्या मधुमास का
चुम्बनों की प्रवाहित करूँ फिर नदी
करके विद्रोह मन के किनारों से मैं
बाँध दूं चाँद, आँचल के इक छोर में
मांग भर दूं तुम्हारी सितारों से मैं
मधुयामिनी कुमार विश्वास कविता
यह कविता माधुर्य, सौंदर्य और कल्पनाओं का सुंदर संगम है. कवि ने इसे प्रकृति और प्रेम से जोड़कर प्रस्तुत किया है. इसमें भावनाओं की सजीवता दिखाई देती है.
क्या अजब रात थी, क्या गज़ब रात थी
दंश सहते रहे, मुस्कुराते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
मन मे अपराध की, एक शंका लिए
कुछ क्रियाये हमें जब हवन सी लगीं
एक दूजे की साँसों मैं घुलती हुई
बोलियाँ भी हमें, जब भजन सी लगीं
कोई भी बात हमने न की रात-भर
प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
पूर्णिमा की अनघ चांदनी सा बदन
मेरे आगोश मे यूं पिघलता रहा
चूड़ियों से भरे हाथ लिपटे रहे
सुर्ख होठों से झरना सा झरता रहा
इक नशा सा अजब छा गया था की हम
खुद को खोते रहे तुमको पाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
आहटों से बहुत दूर पीपल तले
वेग के व्याकरण पायलों ने गढ़े
साम-गीतों की आरोह – अवरोह में
मौन के चुम्बनी- सूक्त हमने पढ़े
सौंपकर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम
इक अनोखी दीवाली मनाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
ओ मेरे पहले प्यार कुमार विश्वास कविता
यह कविता प्रथम प्रेम की मासूमियत और उसकी स्मृतियों का चित्रण है. कवि ने अपने दिल के जज़्बात को सहज रूप से प्रस्तुत किया है. इसमें पहली मोहब्बत की मासूम खुशबू है.

ओ प्रीत भरे संगीत भरे!
ओ मेरे पहले प्यार!
मुझे तू याद न आया कर
ओ शक्ति भरे अनुरक्ति भरे!
नस-नस के पहले ज्वार!
मुझे तू याद न आया कर।
पावस की प्रथम फुहारों से
जिसने मुझको कुछ बोल दिये
मेरे आँसु मुस्कानों की
कीमत पर जिसने तोल दिये
जिसने अहसास दिया मुझको
मै अम्बर तक उठ सकता हूं
जिसने खुद को बाँधा लेकिन
मेरे सब बंधन खोल दिये
ओ अनजाने आकर्षण से!
ओ पावन मधुर समर्पण से!
मेरे गीतों के सार
मुझे तू याद न आया कर।
मूझको ये पता चला मधुरे
तू भी पागल बन रोती है,
जो पीर मेरे अंतर में है
तेरे मन में भी होती है
लेकिन इन बातों से किंचिंत भी
अपना धैर्य नहीं खोना
मेरे मन की सीपी में अब तक
तेरे मन का मोती है,
ओ सहज सरल पलकों वाले!
ओ कुंचित घन अलकों वाले!
हँसते-गाते स्वीकार
मुझे तू याद न आया कर।
ओ मेरे पहले प्यार !
मुझे तू याद न आया कर
तन मन महका कुमार विश्वास कविता
इस रचना में प्रेम की खुशबू और उसकी महक को महसूस कराया गया है. कवि ने तन और मन को प्रेम में डूबा हुआ दिखाया है. इसमें रोमांस और कोमल भावनाएँ गहराई से व्यक्त होती हैं.
तन मन महका जीवन महका
महक उठे घर-द्वारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे
खिली रूप की धुप
चटक गयीं कलियाँ, धरती डोली
मस्त पवन से लिपट के पुरवा, हौले-हौले बोली
छीनके मेरी लाज की चुनरी, टाँके नए सितारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे
सजना के अंगना तक पहुंचे
बातें जब कंगना की
धरती तरसे, बादल बरसे, मिटे प्यास मधुबन की
होठों की चोटों से जागे, तन के सुप्त नगारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे
नदिया का सागर से मिलने
धीरे-धीरे बढ़ना
पर्वत के आखरघाटी, वाली आँखों से पढ़ना
सागर सी बाहों मे आकर, टूटे सभी किनारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे
आज तुम मिल गए कुमार विश्वास कविता
यह कविता मिलन के आनंद और खुशी को व्यक्त करती है. इसमें प्रियतम के मिलने की खुशी को शब्दों में उतारा गया है. इसमें भावनाओं का सजीव और मधुर चित्रण है.
आज हल हो गए प्रश्न मेरे सभी
अब अन्धेरों में दीपक जलेंगे प्रिये!
आज तुम मिल गए तो जहाँ मिल गया
अब सितारों से आगे चलेंगे प्रिये!
आज तक रोज़ चलता रहा जि़ंदगी
का सफ़र, पर मेरे पाँव चल ना सके
आज तक थे तराने हृदय में बहुत
गीत बन कँठ में किंतु ढल ना सके
आज तुम पास हो, हैं किनारे बहुत
गीत में भाव से हम ढलेंगे प्रिये!
आज अहसास की बाँसुरी पर मुझे
तुम मिलन-गीत कोई सुनाओ ज़रा
ये अमा-कालिमा धुल सकेगी शुभे!
पास आकर मेरे मुस्कराओ ज़रा
प्रेम के ताप से मौन के हिम-शिखर
देखना शीघ्र ही अब गलेंगे प्रिये!
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स्मरण गीत कुमार विश्वास कविता
यह रचना स्मृतियों और यादों का गीत है. कवि ने प्रेम की पुरानी यादों को बड़े ही खूबसूरत तरीके से उकेरा है. इसमें बीते पलों की मधुरता झलकती है.
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं,
शक्ति के संकल्प बोझिल हो गये होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे चरण मेरी कामनायें हैं,
हर तरफ है भीड़ ध्वनियाँ और चेहरे हैं अनेकों,
तुम अकेले भी नहीं हो, मैं अकेला भी नहीं हूँ
योजनों चल कर सहस्रों मार्ग आतंकित किये पर,
जिस जगह बिछुड़े अभी तक, तुम वहीं हों मैं वहीं हूँ
गीत के स्वर-नाद थक कर सो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे कंठ मेरी वेदनाएँ हैं,
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं,
यह धरा कितनी बड़ी है एक तुम क्या एक मैं क्या?
दृष्टि का विस्तार है यह अश्रु जो गिरने चला है,
राम से सीता अलग हैं,कृष्ण से राधा अलग हैं,
नियति का हर न्याय सच्चा, हर कलेवर में कला है,
वासना के प्रेत पागल हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हरे माथ मेरी वर्जनाएँ हैं,
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं,
चल रहे हैं हम पता क्या कब कहाँ कैसे मिलेंगे?
मार्ग का हर पग हमारी वास्तविकता बोलता है,
गति-नियति दोनों पता हैं उस दीवाने के हृदय को,
जो नयन में नीर लेकर पीर गाता डोलता है,
मानसी-मृग मरूथलों में खो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी योजनायें हैं,
नेह के सन्दर्भ बौने हो गए होंगे मगर,
फिर भी तुम्हारे साथ मेरी भावनायें हैं!
इक पगली लड़की के बिन कुमार विश्वास कविता
यह कविता एक प्रियसी के अभाव और उसकी कमी को दर्शाती है. कवि ने इसमें अपनी बेचैनी और अधूरापन व्यक्त किया है. इसमें प्रेम की तड़प स्पष्ट रूप से झलकती है.
अमावस की काली रातों में, दिल का दरवाजा खुलता है
जब दर्द की प्याली रातों में, गम आंसू के संग घुलता है
जब पिछवाड़े के कमरें में, हम निपट अकेले होतें हैं
जब घड़ियाँ टिक टिक चलतीं हैं, सब सोतें हैं हम रोतें हैं
जब बार बार दोहराने से, सारी यादें चुक जाती हैं
जब ऊँच नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है
जब पोथे खाली होते हैं, जब सिर्फ सवाली होतें हैं
जब ग़जले रास नहीं आतीं, अफसाने गाली होते है
जब बाकी फीकी धूप समेटे, दिन ज़ल्दी ढल जाता है
जब सूरज का लश्कर छत से, गलियों में देर से आता है
जब ज़ल्दी घर जाने की इच्छा, मन ही मन घुट जाती है
जब दफ़्तर से घर लाने वाली, पहली बस छुट जाती है
जब बेमन से खाना खाने पर, माँ गुस्सा हो जाती है
जब लाख मना करने पर भी, कम्मो पढने आ जाती है
जब अपना मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है
जब कमरें में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है
जब दर्पण में आँखों के नीचे झाई दिखाई देती हैं
जब बडकी भाभी कहतीं हैं कुछ सेहत का भी ध्यान करो
क्या लिखते हो लल्ला दिन भर कुछ सपनों का सम्मान करो
जब बाबा वाली बैठक में, कुछ रिश्ते वाले आते हैं
जब बाबा हमें बुलातें हैं, हम जानें में घबरातें हैं
जब साड़ी पहने लड़की का इक फोटो लाया जाता है
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है
जब सारे घर का समझाना, हमको फनकारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है
अम्मा कहती हैं उस पगली लड़की की कुछ औकात नहीं
उसके दिल में भैया तेरे जैसे ज़ज्बात नहीं
वो पगली लड़की मेरी खातिर नौ दिन भूखी रहती है
चुप चुप सारे व्रत रखती है पर मुझसे कभी न कहती है
जो पगली लड़की कहती है मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत अम्मा बाबा से डरती हूँ
उस पगली लड़की पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं बाबा
ये कथा कहानी किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा
बस उस पगली लड़की के संग हँसना फुलवारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है
किस्सा रूपारानी कुमार विश्वास कविता
इस कविता में सौंदर्य और कल्पना का गहरा चित्रण है. कवि ने रूप के आकर्षण को भावनाओं से जोड़कर प्रस्तुत किया है. इसमें काव्यात्मक सुंदरता झलकती है.

रूपा रानी बड़ी सयानी;
मृगनयनी लौनी छवि वाली,
मधुरिम वचना भोली-भाली;
भरी-भरी पर खाली-खाली।
छोटे कस्बे में रहती थी;
जो गुनती थी सो कहती थी,
दिन भर घर के बासन मलती;
रातों मे दर्पण को छलती।
यों तो सब कुछ ठीक-ठाक था;
फिर भी वो उदास सी रहती,
उनकी काजल आंजी आँखें
सूनेपन की बातें कहती।
जगने उठने में सोने में
कुछ हंसने में कुछ रोने में
थोड़े दिन यूँ ही बीते
खाली खाली रीते रीते
तभी हमारे कवि जी,
तीन लोक से न्यारे कवि जी,
उनके सपनों में आ छाए;
उनको बहुत-बहुत ही भाए।
यूं तो लोगों की नज़रों में
कवि जी कस्बे का कबाड़ थे,
लेकिन उनके ऊपर नीचे
सच्चे झूठे कुछ जुगाड़ थे।
बरस दो बरस में टीवी पर
उनका चेहरा दिख जाता था;
कभी कभी अखबारों में भी
उनका लिखा छप जाता था।
तब वह दुगने हो जाते थे;
सबसे कहते बहुत व्यस्त हूँ,
मरने तक की फुर्सत कब है;
भाग-दौड़ में बड़ा तृस्त हूँ।
रूपा रानी को वो भाए;
उनको रूपा रानी भाई,
जैसे गंगा मैया एक दिन
ऋषिकेष से भू पर आई।
धरती को आकाश मिल गया;
पतझड़ को वनवास मिल गया,
पीड़ा ने निर्वासन पाया;
आँसू को वनवास मिल गया।
रूपा रानी के अधरों पर
चन्दनवन महकाते कवि जी,
कभी फैलते कभी सिमटते;
देर रात घर आते कवि जी।
सोते तो उनके सपनों में
रूपा रानी जगती रहती,
लाख छुपाते सबसे लेकिन;
आँखें मन की बातें कहती।
लेकिन एक दिन हुआ वही
जो पहले से होता आया है,
हंसने वाला हंसने बैठा;
रोया जो रोता आया है।
जैसे राम कथा में
निर्वासन प्रसंग आ जाए,
या फिर हँसते नीलगगन में
श्यामल मेघों का दल छाए।
इसी भांति इस प्रेम कथा में
अपराधी बन आई कविता,
होठों की स्मृत रेखा पर,
धूम्ररेख बन छाई कविता।
रूपा रानी के घरवाले
सबसे कहते हमसे कहते,
यह आवारा काम-धाम कुछ
करता तो हम चुप हो सहते।
बड़ी बैंक का बड़ी रैंक का
एक सुदर्शन दूल्हा आया,
जैसे कोई बीमा वाला
गारंटेड खुशियाँ घर लाया।
शादी की इस धूम-धाम में
अपने कवि जी बहुत व्यस्त थे,
अंदर-अंदर एकाकी थे
बाहर-बाहर बहुत मस्त थे।
बिदा हुई तो खुद ही उसको
दूल्हे जी के पास बिठाया।
तब से कवि जी के अंतस में
पीड़ा जमकर रहती है जी,
लाख छिपाते बातें लेकिन
आँखें सब से कहती हैं जी।
आप पूछते हैं यह किस्सा
कैसे कब और कहाँ हुआ था,
मुझको अब कुछ याद नहीं
इसने मुझको कहाँ छूआ था।
शायद जबसे वाल्मीकि ने
पहली कविता लिखी तबसे,
या जब तुलसी रतनावली के
द्वारे से लौटे थे तब से।
यूं ही सुना दिया यह किस्सा
इसमें कुछ फरियाद नहीं है,
आगे की घटनाएँ सब
मालूम हैं पर याद नहीं है।
मर गया राजा मर गयी रानी
खतम हुई यूं प्रेम कहानी।
बाकी किस्से फिर सुन लेना
आएंगी अनगिनत शाम जी,
अच्छा जी अब चलता हूँ मैं,
राम-राम जी राम-राम जी।
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दिल तो करता है कुमार विश्वास कविता
यह कविता हृदय की इच्छाओं और मन के ख्व़ाबों को बयां करती है. इसमें प्रेम की मासूम भावनाएँ खुलकर सामने आती हैं. कवि ने इसे बहुत सरल और रोमांटिक अंदाज़ में लिखा है.
दिल तो करता है ख़ैर करता है
आप का ज़िक्र ग़ैर करता है
क्यूँ न मैं दिल से दूँ दुआ उस को
जबकि वो मुझ से बैर करता है
आप तो हू-ब-हू वही हैं जो
मेरे सपनों में सैर करता है
इश्क़ क्यूँ आप से ये दिल मेरा
मुझ से पूछे बग़ैर करता है
एक ज़र्रा दुआएँ माँ की ले
आसमानों की सैर करता है
जिसकी धुन पर दुनिया नाचे कुमार विश्वास
यह कविता संगीत, प्रेम और जीवन की ऊर्जा का प्रतीक है. कवि ने इसमें धुन को जीवन का उत्सव बताया है. इसमें आशा और उमंग का भाव स्पष्ट है.
जिसकी धुन पर दुनिया नाचे, दिल ऐसा इकतारा है,
जो हमको भी प्यारा है और, जो तुमको भी प्यारा है।
झूम रही है सारी दुनिया, जबकि हमारे गीतों पर,
तब कहती हो प्यार हुआ है, क्या अहसान तुम्हारा है।
जो धरती से अम्बर जोड़े, उसका नाम मोहब्बत है,
जो शीशे से पत्थर तोड़े, उसका नाम मोहब्बत है।
कतरा कतरा सागर तक तो ,जाती है हर उम्र मगर,
बहता दरिया वापस मोड़े, उसका नाम मोहब्बत है।
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