Hindi Poem on Indian Culture | भारतीय संस्कृति पर कविता | बुढ़िया | अरुण बंसल

By Ranjan Gupta

Published on:

Follow Us:
Hindi Poem on Indian Culture | भारतीय संस्कृति पर कविता | बुढ़िया | अरुण बंसल

Hindi Poem on Indian Culture: भारत में परंपरागत रूप से, युवा पीढ़ी हमेशा से ही बुजुर्गों के पैर छूकर उनका सम्मान करती रही है। बुजुर्ग हमेशा से ही हमारे परिवारों की धरोहर रहे हैं। लेकिन, 21वीं सदी के आधुनिक समाज में न केवल बुजुर्गों की संख्या बढ़ी है, बल्कि भारत में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार, उत्पीड़न और परित्याग के मामले भी बढ़े हैं। अब ज़्यादातर बच्चे अपने माता-पिता को अकेला छोड़ रहे हैं या उन्हें वृद्धाश्रम भेज रहे हैं।

ज़्यादातर लोग समाज में बुज़ुर्गों के महत्व को समझने में विफल रहते हैं। वे ही हैं जो किसी भी जातीय समूह या समुदाय में मौजूद पारंपरिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करते हैं। अगर वे युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के बारे में नहीं बताते, तो भारत में परंपराओं और संस्कृतियों की विविधता उपनिवेशवाद के समय में बहुत पहले ही खत्म हो गई होती।

इसी विषय को लेकर अरुण कुमार बंसल जी ने भारतीय संस्कृति पर कविता (Poem on Indian Culture Hindi ) लिखी है..बिना किसी देरी के आइए पढ़ते हैं…उससे पहले देख लेते हैं एक प्यारा सा कोट्स जो इस अवस्था को अच्छे से दर्शाती है।

“अपने बड़ों की सलाह सुनो। इसलिए नहीं कि वे हमेशा सही होते हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें गलत होने का ज़्यादा अनुभव होता है।” – मेलचोर लिम

बुढ़िया | Hindi Poem on Indian Culture

एक बूढ़ी दादी,बर्तन मांजने आती,
दादी बूढ़ी, काफी बूढ़े उसके हाथ।
मैं बच्चा था, तब भी दादी वैसी थी,
जैसे दिखती है मेरे पचासे में आज।

अम्मां रख देतीं थीं पहले बच गयीं,
अब बीवी दे देती रोटियां एकआध।
कभी बासी बेकार तरकारी-सब्जी,
दादी ले लेती लगाती माथे पे हाथ।

सुना था उसके बच्चे हुये,बचे नहीं,
छोड़ दिया यों निष्ठुर मरद ने साथ।
कोई शिकायत नहीं उसको, कभी,
कोई दिन पाये, किसी को हो रात।

दादी,पहले भर कर लाती जाड़े में,
अपने पल्लू में कुछ गंजी भूनकर।
सिगड़ी सुलगाती, उसको गरमाती,
छील-छील खिलाती, चुन चुनकर।

इसी बचपन में, कभी बरफ मलाई,
कभी चूरन भी, कभी नान-खटाई।
दादी दिख जाती तो,हो जाती मौज,
जाने कितनी थी, दादी की कमाई।

आजकल दादी अब ‘बुढ़िया’ हो गई,
मैं जानकर भूला हूं, कभी छोटा था।
अब मेरा स्टैंडर्ड बढ़ गया है काफी,
कभी,दादी से चिपक कर रोता था।

दादी ने जमाने को समझा है बेहतर,
और ढाल लिया है खुद को एकदम।
पहले बचुआ कह पुकारती मुझको,
अबसे ‘साहब जी’ ही कहती हरदम।

कवि: अरुण कुमार बंसल 

ये भी पढ़ें: Maa par kavita | मां पर बेस्ट कविताएं | Mother’s Day 2024 Poem in Hindi

Ranjan Gupta

मैं इस वेबसाइट का ऑनर हूं। कविताएं मेरे शौक का एक हिस्सा है जिसे मैनें 2019 में शुरुआत की थी। अब यह उससे काफी बढ़कर है। आपका सहयोग हमें हमेशा मजबूती देता आया है। गुजारिश है कि इसे बनाए रखे।

Leave a Comment