Short Story on Daily Life: आज कैमरे और ब्लॉगिंग की दुनिया में कलम उठाकर अपने एक अवांछित दिवस का किस्सा सुनाने का साहस कर रहा हूँ | साहस एकलव्य का है या अर्जुन का यह आप पर छोड़ आपकी आज्ञा चाहता हूँ।
एक दिन | One Day
दिन शुक्रवार, भोर हुई अपने तय समय पर लेकिन मेरी आंखें खुली पूर्वाहन में। इस वक्त उठने का आलम तो खैर पर ये सुबह भी मेरे पिछले हर सुबहों की पुनरावृत्ति ही थी | रवि ठीक ऊपर थे लेकिन उनके दर्शन किये बगैर अपनी दिनचर्या में लग गया ठीक वैसे ही जैसे मेरा 10 बाई 10 का कमरा कोई कालकोठरी हो जिसका कैदी आज भी अपनी जमानत का इंतज़ार कर रहा है | ये समीकरण कभी और समझाऊंगा फिलहाल मेरे कार्य का वक्त ऐसे भाग रहा था जैसे कोई रेस जितना हो उसे |
दिन इसी कशमकश में ढलने लगा था और मेरी बेचैनी भी अब शरीर को चिरते जहन में पहुंचने लगी क्योंकि कुछ खास प्रगति नहीं हुई थी काम में | लेकिन ये दिहाड़ी बेचैनी किस मानसिक स्थिति में तब्दील होगी इसका अंदाजा नही था मुझे। उसी सिलसिले में माँ का फोन बजा और फिर क्या उस पार के दृश्य देख मैं चौंक उठा। हाँ, आज वही अवांछित दिन साबित होने वाला था जिसका जीक्र मैंने शुरू में किया था |
खैर अपनी हर सरगोशियों को नकारते मैनें माँ से सुखद संवाद स्थापित करने की कोशिश की। अब तक मेरी उत्सुकता घटने लगी थी और जिज्ञासा अपने कौंवार्य पर थी, तभी माँ का स्वर कानों से गुजरते मस्तिष्क तक पहुंचा;जो था ” बड़का दादाजी गुजर गइनी” । जी हाँ मेरे दादा जी का स्वर्गवास हो चला था | माँ को अपने अंदर उठती लहरों को समेटता देख मेरा भी रक्तवाह धीमा होता चला गया और एक-दूसरे की खैरियत पूछ हमने जल्द ही फोन रख दिया| गांव से 900 किमी दूर रहते हुए भी मैं अपने आँगन के हर आंसुओं को बटोरता वहाँ अपने आप को पा रहा था | कुछ देर बाद आज के चांद को इस ज्वार का दोषी करार करके ; चाँदनी से छिपता नींद का अस्थायी साथी बन चुका था |
—-अनुराग