Suryakant Tripathi Nirala Best Poems in Hindi: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने अपनी शानदार कविताओं से सभी का दिल जीता है। निराला जी हिंदी साहित्य के एक बहुत ही महत्वपूर्ण कवि, लेखक, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार और संपादक थे।
Suryakant Tripathi Nirala Best Poems in Hindi
अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक तथा प्रगतिवाद प्रयोगवाद के जनक भी माने जाते हैं। उनके अंदर एक सबसे अहम गुण ‘यथा नाम तथा गुण’ के बारे में प्रमाण मिलता था। आइए यहां पढ़ते हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की बेस्ट कविताएं (Suryakant Tripathi Nirala Best Poems)
Table of Contents
सच है

यह सच है:-
तुमने जो दिया दान दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है–
यह सच है!
बार बार हार हार मैं गया,
खोजा जो हार क्षार में नया,
उड़ी धूल, तन सारा भर गया,
नहीं फूल, जीवन अविकच है–
यह सच है!
प्रेम के प्रति
चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम अनादि तब केवल तम;
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम।
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।
वसन वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया,
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया;
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।
प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार,
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।
उदबोधन
गरज गरज घन अंधकार में गा अपने संगीत,
बन्धु, वे बाधा-बन्ध-विहीन,
आखों में नव जीवन की तू अंजन लगा पुनीत,
बिखर झर जाने दे प्राचीन।
बार बार उर की वीणा में कर निष्ठुर झंकार
उठा तू भैरव निर्जर राग,
बहा उसी स्वर में सदियों का दारुण हाहाकार
संचरित कर नूतन अनुराग।
बहता अन्ध प्रभंजन ज्यों, यह त्यों ही स्वर-प्रवाह
मचल कर दे चंचल आकाश,
उड़ा उड़ा कर पीले पल्लव, करे सुकोमल राह,–
तरुण तरु; भर प्रसून की प्यास।
काँपे पुनर्वार पृथ्वी शाखा-कर-परिणय-माल,
सुगन्धित हो रे फिर आकाश,
पुनर्वार गायें नूतन स्वर, नव कर से दे ताल,
चतुर्दिक छा जाये विश्वास।
मन्द्र उठा तू बन्द-बन्द पर जलने वाली तान,
विश्व की नश्वरता कर नष्ट,
जीर्ण-शीर्ण जो, दीर्ण धरा में प्राप्त करे अवसान,
रहे अवशिष्ट सत्य जो स्पष्ट।
ताल-ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय कपाट,
खोल दे कर कर-कठिन प्रहार,
आये अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य विराट,
करे दर्शन, पाये आभार।
छोड़, छोड़ दे शंकाएँ, रे निर्झर-गर्जित वीर!
उठा केवल निर्मल निर्घोष;
देख सामने, बना अचल उपलों को उत्पल, धीर!
प्राप्त कर फिर नीरव संतोष!
भर उद्दाम वेग से बाधाहर तू कर्कश प्राण,
दूर कर दे दुर्बल विश्वास,
किरणों की गति से आ, आ तू, गा तू गौरव-गान,
एक कर दे पृथ्वी आकाश।
प्रेयसी
घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग-भाव भर
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
किरण-सम्पात से।
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
विचरते मञ्जु-मुख
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
उठी हुई उर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।
हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-
श्रृंगार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।
याद है, उषःकाल,-
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;
करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसंग,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक;
देख मैं रुक गयी:-
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।
अपनी ही दृष्टि में;
जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी,
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँधकर मैं रह गयी;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !
बँधी हुई तुमसे ही
देखने लगी मैं फिर-
फिर प्रथम पृथ्वी को;
भाव बदला हुआ-
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !
देखती हुई सहज
हो गयी मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई;
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई !
चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि !
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द-
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
उनकी ही मैं हुई !
समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।
बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
तब तुम लघुपद-विहार
अनिल ज्यों बार-बार
वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।
अपने उस गीत पर
सुखद मनोहर उस तान का माया में,
लहरों में हृदय की
भूल-सी मैं गयी
संसृति के दुःख-घात,
श्लथ-गात, तुममें ज्यों
रही मैं बद्ध हो।
किन्तु हाय,
रूढ़ि, धर्म के विचार,
कुल, मान, शील, ज्ञान,
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,
घेर लेते बार-बार,
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
भिन्न-धर्मभाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।
किन्तु दिन रात का,
जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के !
अन्धकार था हृदय
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
गृह-जन थे कर्म पर।
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
जीवन की वीणा में,
सुनती थी मैं जिसे।
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
चल दी मैं मुक्त, साथ।
एक बार की ऋणी
उद्धार के लिए,
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।
पूर्ण मैं कर चुकी।
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,
जागती मैं रही,
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
प्रेम-संगीत
बम्हन का लड़का
मैं उसको प्यार करता हूँ।
जात की कहारिन वह,
मेरे घर की है पनहारिन वह,
आती है होते तड़का,
उसके पीछे मैं मरता हूँ।
कोयल-सी काली, अरे,
चाल नहीं उसकी मतवाली,
ब्याह नहीं हुआ, तभी भड़का,
दिल मेरा, मैं आहें भरता हूँ।
रोज़ आकर जगाती है सबको,
मैं ही समझता हूँ इस ढब को,
ले जाती है मटका बड़का,
मैं देख-देखकर धीरज धरता हूँ।
रानी और कानी
माँ उसको कहती है रानी
आदर से, जैसा है नाम;
लेकिन उसका उल्टा रूप,
चेचक के दाग, काली, नक-चिप्टी,
गंजा-सर, एक आँख कानी।
रानी अब हो गई सयानी,
बीनती है, काँड़ती है, कूटती है, पीसती है,
डलियों के सीले अपने रूखे हाथों मीसती है,
घर बुहारती है, करकट फेंकती है,
और घड़ों भरती है पानी;
फिर भी माँ का दिल बैठा रहा,
एक चोर घर में पैठा रहा,
सोचती रहती है दिन-रात
कानी की शादी की बात,
मन मसोसकर वह रहती है
जब पड़ोस की कोई कहती है-
“औरत की जात रानी,
ब्याह भला कैसे हो
कानी जो है वह!”
सुनकर कानी का दिल हिल गया,
काँपे कुल अंग,
दाईं आँख से
आँसू भी बह चले माँ के दुख से,
लेकिन वह बाईं आँख कानी
ज्यो-की-त्यों रह गई रखती निगरानी।
हारता है मेरा मन
हारता है मेरा मन विश्व के समर में जब
कलरव में मौन ज्यों
शान्ति के लिए, त्यों ही
हार बन रही हूँ प्रिय, गले की तुम्हारी मैं,
विभूति की, गन्ध की, तृप्ति की, निशा की ।
जानती हूँ तुममें ही
शेष है दान–मेरा अस्तित्व सब
दूसरा प्रभात जब फैलेगा विश्व में
कुछ न रह जाएगा तुझमें तब देने को ।
किन्तु आजीवन तुम एक तत्त्व समझोगे–
और क्या अधिकतर विश्व में शोभन है,
अधिक प्राणों के पास, अधिक आनन्द मय,
अधिक कहने के लिए प्रगति सार्थकता ।
अट नहीं रही है
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद – गंध-पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
हार गई मैं तुम्हें जगाकर
हार गई मैं तुम्हें जगाकर,
धूप चढ़ी प्रखर से प्रखरतर।
वर्जन के जो वज्र-द्वार हैं,
क्या खुलने के भी किंवार हैं?
प्राण पवन से पार-पार हैं,
जैसे दिनकर निष्कर, निश्शर।
पंच विपंची से विहीन हैं;
जैसे जन आयु से छीण हैं;
सभी विरोधाभास पीन हैं;
असमय के जैसे धाराधर।
घन आये घनश्याम न आये
घन आये घनश्याम न आये।
जल बरसे आँसू दृग छाये।
पड़े हिंडोले, धड़का आया,
बढ़ी पैंग, घबराई काया,
चले गले, गहराई छाया,
पायल बजे, होश मुरझाये।
भूले छिन, मेरे न कटे दिन,
खुले कमल, मैंने तोड़े तिन,
अमलिन मुख की सभी सुहागिन,
मेरे सुख सीधे न समाये।
सीधी राह मुझे चलने दो
सीधी राह मुझे चलने दो।
अपने ही जीवन फलने दो।
जो उत्पात, घात आए हैं,
और निम्न मुझको लाए हैं,
अपने ही उत्ताप बुरे फल,
उठे फफोलों से गलने दो।
जहाँ चिन्त्य हैं जीवन के क्षण,
कहाँ निरामयता, संचेतन?
अपने रोग, भोग से रहकर,
निर्यातन के कर मलने दो।
तुम और मैं
तुम तुंग – हिमालय – शृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।
तुम प्रेम और मैं शांति,
तुम सुरा – पान – घन अंधकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रांति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन – वन – घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।
तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कंठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह – रागिनी।
तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रांत
और मैं बाट – जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।
तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत – काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ – मधुरिमा।
तुम गंध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम – जंजीर।
तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल – गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन – पंच – शर – हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान!
तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद – वेद ओंकार – सार,
मैं कवि – श्रृंगार शिरोमणि।
तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द – इन्दु – अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।
जागो फिर एक बार
जागो फिर एक बार!
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!
आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?-
बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!
अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी
घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए,
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!
पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!
सहृदय समीर जैसे
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमन
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें,
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे,
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!
उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट,
गया दिन, आयी रात,
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,
वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!
अभी न होगा मेरा अंत
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त
हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त।
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अन्त।
मौन

बैठ लें कुछ देर,
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में,
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु सा बह जाए।
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से,
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।
मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा
मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा ?
स्तब्ध दग्ध मेरे मरु का तरु
क्या करुणाकर, खिल न सकेगा ?
जग दूषित बीज नष्ट कर,
पुलक-स्पन्द भर खिला स्पष्टतर,
कृपा समीरण बहने पर क्या,
कठिन हृदय यह हिल न सकेगा ?
मेरे दुख का भार, झुक रहा,
इसलिए प्रति चरण रुक रहा,
स्पर्श तुम्हारा मिलने पर क्या,
महाभार यह झिल न सकेगा ?
“प्यार के अभाव में मेरी जिंदगी
एक वीराना बन कर रह गयी है
अगर तुम देख लो, यह सँवर जाये।”
मातृ वंदना
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर, माँ
मेरे श्रम सिंचित सब फल।
जीवन के रथ पर चढ़कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर;
जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रु जल धौत विमल
दृग जल से पा बल बलि कर दूँ
जननि, जन्म श्रम संचित पल।
बाधाएँ आएँ तन पर
देखूँ तुझे नयन मन भर
मुझे देख तू सजल दृगों से
अपलक, उर के शतदल पर;
क्लेद युक्त, अपना तन दूंगा
मुक्त करूंगा तुझे अटल
तेरे चरणों पर दे कर बलि
सकल श्रेय श्रम संचित फल
भारती वंदना
भारति, जय, विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे!
लंका पदतल-शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण-युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!
तरु-तण वन-लता-वसन
अंचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल-धार हार लगे!
मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख-शतरव-मुखरे!
वर दे वीणावादिनी वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
दलित जन पर करुणा करो
दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति अरुणा।
हरे तन-मन प्रीति पावन,
मधुर हो मुख मनोभावन,
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा
देख वैभव न हो नत सिर,
समुद्धत मन सदा हो स्थिर,
पार कर जीवन निरन्तर
रहे बहती भक्ति-वरुणा।
मैं अकेला
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।
पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला ।
जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला ।
स्नेह-निर्झर बह गया है
स्नेह-निर्झर बह गया है !
रेत ज्यों तन रह गया है ।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-“अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है ।”
“दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल–
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है ।”
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है ।
बदलीं जो उनकी आँखें
बदलीं जो आँखें, इरादा बदल गया।
गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया।
यह टहनी से हवा की छेड़छाड़ थी, मगर
खिलकर सुगन्ध से किसी का दिल बहल गया।
ख़ामोश फ़तह पाने को रोका नहीं रुका,
मुश्किल मुकाम, ज़िन्दगी का जब सहल गया।
मैंने कला की पाटी ली है शेर के लिए,
दुनिया के गोलन्दाजों को देखा, दहल गया।
बातें चलीं सारी रात तुम्हारी
बातें चलीं सारी रात तुम्हारी;
आंखें नहीं खुलीं प्रात तुम्हारी ।
पुरवाई के झोंके लगे हैं,
जादू के जीवन में आ जगे हैं,
पारस पास कि राग रंगे हैं,
कांपी सुकोमल गात तुम्हारी ।
अनजाने जग को बढ़ने की
अनपढ़-पड़े पाठ पढ़ने की
जगी सुरति चोटी चढ़ने की;
यौवन की बरसात तुम्हारी ।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
भीतर, पर, भर दिया गया हूँ।
ऊपर वह बर्फ गली है,
नीचे यह नदी चली है,
सख्त तने के ऊपर नर्म कली है;
इसी तरह हर दिया गया हूँ।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
आंखों पर पानी है लाज का,
राग बजा अलग-अलग साज़ का,
भेद खुला सविता के किरण-व्याज का;
तभी सहज वर दिया गया हूं।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
भीतर, बाहर; बाहर, भीतर;
देखा जब से, हुआ अनश्वर;
माया का साधन यह सस्वर;
ऐसे ही घर दिया गया हूं।
बाहर मैं कर दिया गया हूँ।
राजे ने अपनी रखवाली की
राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं।
चापलूस कितने सामन्त आए।
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।
कितने ब्राह्मण आए
पोथियों में जनता को बाँधे हुए।
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,
लेखकों ने लेख लिखे,
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,
नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले।
जनता पर जादू चला राजे के समाज का।
लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं।
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
ख़ून की नदी बही।
आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं।
आँख खुली-राजे ने अपनी रखवाली की।
झींगुर डटकर बोला
गांधीवादी आये,
कांग्रेसमैन टेढ़े के;
देर तक, गांधीवाद क्या है, समझाते रहे।
देश की भक्ती से,
निर्विरोध शक्ती से,
राज अपना होगा;
ज़मींदार, साहूकार अपने कहलाएंगे
शासन की सत्ता हिल जाएगी;
हिन्दू और मुसलमान
वैरभाव भूलकर जल्द गले लगेंगे,
जितने उत्पात हैं;
नौकरों के लिए हुए;
जब तक इनका कोई
एक आदमी भी होगा,
चूल नहीं बैठने की।
इस प्रकार जब बघार चलती थी,
ज़मींदार का गोड़इत
दोनाली लिये हुए
एक खेत फ़ासले से
गोली चलाने लगा।
भीड़ भगने लगी।
कांसटेब्ल खड़ा हुआ ललकारता रहा।
झींगुर ने कहा,
“चूंकि हम किसान-सभा के,
भाई जी के मददगार
ज़मींदार ने गोली चलवाई
पुलिस के हुक्म की तामीली की।
ऐसा यह पेच है।”
गर्म पकौड़ी
गर्म पकौड़ी-
ऐ गर्म पकौड़ी,
तेल की भुनी
नमक मिर्च की मिली,
ऐ गर्म पकौड़ी !
मेरी जीभ जल गयी
सिसकियां निकल रहीं,
लार की बूंदें कितनी टपकीं,
पर दाढ़ तले दबा ही रक्खा मैंने
कंजूस ने ज्यों कौड़ी,
पहले तूने मुझ को खींचा,
दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा,
अरी, तेरे लिए छोड़ी
बम्हन की पकाई
मैंने घी की कचौड़ी।
कुकुरमुत्ता
(1)
एक थे नव्वाब,
फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।
बड़ी बाड़ी में लगाए
देशी पौधे भी उगाए
रखे माली, कई नौकर
गजनवी का बाग मनहर
लग रहा था।
एक सपना जग रहा था
सांस पर तहजबी की,
गोद पर तरतीब की।
क्यारियां सुन्दर बनी
चमन में फैली घनी।
फूलों के पौधे वहाँ
लग रहे थे खुशनुमा।
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,
और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,
आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,
जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
फ़लों के भी पेड़ थे,
आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।
चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,
लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,
बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।
साफ़ राह, सरा दानों ओर,
दूर तक फैले हुए कुल छोर,
बीच में आरामगाह
दे रही थी बड़प्पन की थाह।
कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
“अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी।
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूँ मौलिक
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
काम मुझ ही से सधा है
शेर भी मुझसे गधा है
चीन में मेरी नकल, छाता बना
छत्र भारत का वही, कैसा तना
सब जगह तू देख ले
आज का फिर रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।
काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।
उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
और लम्बी कहानी-
सामने लाकर मुझे बेंड़ा
देख कैंडा
तीर से खींचा धनुष मैं राम का।
काम का-
पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।
सुबह का सूरज हूँ मैं ही
चांद मैं ही शाम का।
कलजुगी मैं ढाल
नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला
सारी दुनिया तोलती गल्ला
मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला
मेरे उल्लू, मेरे लल्ला
कहे रूपया या अधन्ना
हो बनारस या न्यवन्ना
रूप मेरा, मै चमकता
गोला मेरा ही बमकता।
लगाता हूँ पार मैं ही
डुबाता मझधार मैं ही।
डब्बे का मैं ही नमूना
पान मैं ही, मैं ही चूना
मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसे
बने दर्शनशास्त्र जैसे।
ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त
वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
जैसे सिकुड़न और साड़ी,
ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन
जैसे फ़्रायड और लीटन।
फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
जरूरत और हो रफ़ा।
सरसता में फ़्राड
केपिटल में जैसे लेनिनग्राड।
सच समझ जैसे रकीब
लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब
मैं डबल जब, बना डमरू
इकबगल, तब बना वीणा।
मन्द्र होकर कभी निकला
कभी बनकर ध्वनि छीणा।
मैं पुरूष और मैं ही अबला।
मै मृदंग और मैं ही तबला।
चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार
दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने
संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने
मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा
जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।
वायलिन मुझसे बजा
बेन्जो मुझसे सजा।
घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,
शंख, तुरही, मजीरे, करताल,
करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,
बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,
मानते हैं सब मुझे ये बायें से,
जानते हैं दाये से।
ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह
देख, सब में लगी है मेरी गिरह
नाच में यह मेरा ही जीवन खुला
पैरों से मैं ही तुला।
कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,
क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स
बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,
पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका
नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,
सब में मेरी ही गढ़न।
किसी भी तरह का हावभाव,
मेरा ही रहता है सबमें ताव।
मैने बदलें पैंतरे,
जहां भी शासक लड़े।
पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,
मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।
नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,
नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।
नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का
नहीं मेरा बदन आठोगांठ का।
रस-ही-रस मैं हो रहा
सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।
दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,
रस में मैं डूबा-उतराया।
मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।
टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े
हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर
टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा
पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर
हाथ, कहां, ‘लिख दिया जहां सारा’।
ज्यादा देखने को आंख दबाकर
शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही
रोका नहीं रूकता जोश का पारा
यहीं से यह कुल हुआ
जैसे अम्मा से बुआ।
मेरी सूरत के नमूने पीरामेड
मेरा चेला था यूक्लीड।
रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,
जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर
मैं ही सबका जनक
जेवर जैसे कनक।
हो कुतुबमीनार,
ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,
विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,
मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता
सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,
गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।
एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च
पड़ती है मेरी ही टार्च।
पहले के हो, बीच के हो या आज के
चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।
चीन के फ़ारस के या जापान के
अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।
ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के
कहीं की भी मकड़ी के।
बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे
छत्ते के हैं घेरे।
सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप
टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।
और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,
देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।
घूमता हूं सर चढ़ा,
तू नहीं, मैं ही बड़ा।”
(2)
बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े
दूर से जो देख रहे थे अधगड़े।
जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी
मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-
बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियां
सेलरों की, परों की थी गड्डियां
कहीं मुर्गी, कही अण्डे,
धूप खाते हुए कण्डे।
हवा बदबू से मिली
हर तरह की बासीली पड़ी गयी।
रहते थे नव्वाब के खादिम
अफ़्रिका के आदमी आदिम-
खानसामां, बावर्ची और चोबदार;
सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,
तामजानवाले कुछ देशी कहार,
नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,
फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान
एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।
एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा
काटता था जिन्दगी गिरता-सधा।
बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान
रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान
पेट के मारे वहां पर आ बसे
साथ उनके रहे, रोये और हंसे।
एक मालिन
बीबी मोना माली की थी बंगालिन;
लड़की उसकी, नाम गोली
वह नव्वाबजादी की थी हमजोली।
नाम था नव्वाबजादी का बहार
नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।
सारंगी जैसी चढ़ी
पोएट्री में बोलती थी
प्रोज में बिल्कुल अड़ी।
गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट
पोयट्री की स्पेशलिस्ट।
बातों जैसे मजती थी
सारंगी वह बजती थी।
सुनकर राग, सरगम तान
खिलती थी बहार की जान।
गोली की मां सोचती थी-
गुर मिला,
बिना पकड़े खिचे कान
देखादेखी बोली में
मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।
इसलिए बहार वहां बारहोमास
डटी रही गोली की मां के
कभी गोली के पास।
सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी
खुशामद से तनतनाई आती थी।
गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी
स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।
पर कहेंगे-
‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं
अपनी-अपनी कहती थी।
दोनों के दिल मिले थे
तारे खुले-खिले थे।
हाथ पकड़े घूमती थीं
खिलखिलाती झूमती थीं।
इक पर इक करती थीं चोट
हंसकर होतीं लोटपोट।
सात का दोनों का सिन
खुशी से कटते थे दिन।
महल में भी गोली जाया करती थी
जैसे यहां बहार आया करती थी।
एक दिन हंसकर बहार यह बोली-
“चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”
दोनों चली, जैसे धूप, और छांह
गोली के गले पड़ी बहार की बांह।
साथ टेरियर और एक नौकरानी।
सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी
सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को
बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।
निकल जाने पर बहार के, बोली
पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली
मोना बंगाली की लड़की ।
भैंस भड़्की,
ऎसी उसकी मां की सूरत
मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।
रोज जाती है महल को, जगे भाग
आखं का जब उतरा पानी, लगे आग,
रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब
बन रहे हैं गहने-जेवर
पकता है कलिया-कबाब।”
झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े
चली ठनकाती कड़े।
बाग में आयी बहार
चम्पे की लम्बी कतार
देखती बढ़्ती गयी
फ़ूल पर अड़ती गयी।
मौलसिरी की छांह में
कुछ देर बैठ बेन्च पर
फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर
देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां
डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।
भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से
उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।
फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर
देखती रही कि कितनी दूर तक छोर
देखा, उठ रही थी धूप-
पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।
पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े
ताज पहने, है खड़े।
आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये
गुलबहार को दिये।
गोली को इक गुलदस्ता
सूंघकर हंसकर बहार ने दिया।
जरा बैठकर उठी, तिरछी गली
होती कुन्ज को चली!
देखी फ़ारांसीसी लिली
और गुलबकावली।
फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा
तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।
एक बगल की झाड़ी
बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।
देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल
लहराया जी का सागर अकूल।
दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता
जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।
सकपकायी, बहार देखने लगी
जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।
भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार
सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।
टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार
तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।
बहुत उगे थे तब तक
उसने कुल अपने आंचल में
तोड़कर रखे अब तक।
घूमी प्यार से
मुसकराती देखकर बोली बहार से-
“देखो जी भरकर गुलाब
हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।
पूछा “क्या इसका कबाब
होगा ऎसा भी लजीज?
जितनी भाजियां दुनिया में
इसके सामने नाचीज?”
गोली बोली-“जैसी खुशबू
इसका वैसा ही स्वाद,
खाते खाते हर एक को
आ जाती है बिहिश्त की याद
सच समझ लो, इसका कलिया
तेल का भूना कबाब,
भाजियों में वैसा
जैसा आदमियों मे नव्वाब”
“नहीं ऎसा कहते री मालिन की
छोकड़ी बंगालिन की!”
डांटा नौकरानी ने-
चढ़ी-आंख कानी ने।
लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के
जा चुके थे पेट में तब तक बहार के।
“नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”
पलटकर बहार ने उसे डांटा-
“कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,
इसके साथ यहां जाना है।”
“बता, गोली” पूछा उसने,
“कुकुरमुत्ते का कबाब
वैसी खुशबु देता है
जैसी कि देता है गुलाब!”
गोली ने बनाया मुंह
बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”
कहा, “बकरा हो या दुम्बा
मुर्ग या कोई परिन्दा
इसके सामने सब छू:
सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।
भरता है गुलाब पानी
इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”
चाव से गोली चली
बहार उसके पीछे हो ली,
उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी
पोंछती जो आंख कानी।
चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।
उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-
आधुनिक पोयेट (Poet)
पीछे बांदी बचत की सोचती
केपीटलिस्ट क्वेट।
झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी
जोर से ‘मां’ चिल्लायी।
मां ने दरवाजा खोला,
आंखो से सबको तोला।
भीतर आ डलिये मे रक्खे
मोली ने वे कुकुरमुत्ते।
देखकर मां खिल गयी।
निधि जैसे मिल गयी।
कहा गोली ने, “अम्मा,
कलिया-कबाब जल्द बना।
पकाना मसालेदार
अच्छा, खायेंगी बहार।
पतली-पतली चपातियां
उनके लिए सेख लेना।”
जला ज्यों ही उधर चूल्हा,
खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।
कोठरी में अलग चलकर
बांदी की कानी को छलकर।
टेरियर था बराती
आज का गोली का साथ।
हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।
दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।
इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार
हो गया, खाने चलीं गोली और बहार।
कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे
थाली लगायी बड़े समादर से।
खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,
“ऎसा खाना आज तक नही खाया”
शौक से लेकर सवाद
खाती रहीं दोनो
कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।
बांदी को भी थोड़ा-सा
गोली की मां ने कबाब परोसा।
अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी
बाद को ला दिया,
हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी जब बहार से
नव्वाब के मुंह आया पानी।
बांदी से की पूछताछ,
उनको हो गया विश्वास।
माली को बुला भेजा,
कहा, “कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”
माली ने कहा, “हुजूर,
कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,
रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”
गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।
बोले; “चल, गुलाब जहां थे, उगा,
सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”
बोला माली, “फ़रमाएं मआफ़ खता,
कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”
रेखा
यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब
श्रोत सौन्दर्य का,
वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का
था मधुर आकर्षणमय,
मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में।
वाहिनी संसृति की
आती अज्ञात दूर चरण-चिन्ह-रहित
स्मृति-रेखाएँ पारकर,
प्रीति की प्लावन-पटु,
क्षण में बहा लिया—
साथी मैं हो गया अकूल का,
भूल गया निज सीमा,
क्षण में अज्ञानता को सौंप दिये मैंने प्राण
बिना अर्थ,–प्रार्थना के।
तापहर हृदय वेग
लग्न एक ही स्मृति में;
कितना अपनाव?—
प्रेमभाव बिना भाषा का,
तान-तरल कम्पन वह बिना शब्द-अर्थ की।
उस समय हृदय में
जो कुछ वह आता था,
हृदय से चुपचाप
प्रार्थना के शब्दों में
परिचय बिना भी यदि
कोई कुछ कहता था,
अपनाता मैं उसे।
चिर-कालिक कालिमा—
जड़ता जीवन की चिर-संचित थी दूर हुई।
स्वच्छ एक दर्पण—
प्रतिबिम्बों की ग्रहण-शक्ति सम्पूर्ण लिये हुए;
देखता मैं प्रकृति चित्र,–
अपनी ही भावना की छायाएं चिर-पोषित।
प्रथम जीवन में
जीवन ही मिला मुझे, चारों ओर।
आती समीर
जैसे स्पर्श कर अंग एक अज्ञात किसी का,
सुरभि सुमन्द में हो जैसे अंगराग-गंध,
कुसुमों में चितवन अतीत की स्मृति-रेखा—
परिचित चिर-काल की,
दूर चिर-काल से;
विस्मृति से जैसे खुल आई हो कोई स्मृति
ऐसे ही प्रकृति यह
हरित निज छाया में
कहती अन्तर की कथा
रह जाती हृदय में।
बीते अनेक दिन
बहते प्रिय-वक्ष पर ऐसे ही निरुपाय
बहु-भाव-भंगों की यौवन-तरंगों में।
निरुद्देश मेरे प्राण
दूरतक फैले उस विपुल अज्ञान में
खोजते थे प्राणों को,
जड़ में ज्यों वीत-राग चेतन को खोजते।
अन्त में
मेरी ध्रुवतारा तुम
प्रसरित दिगन्त से
अन्त में लाई मुझे
सीमा में दीखी असीमता—
एक स्थिर ज्योति में
अपनी अबाधता—
परिचय निज पथ का स्थिर।
वक्ष पर धरा के जब
तिमिर का भार गुरु
पीड़ित करता है प्राण,
आते शशांक तब हृदय पर आप ही,
चुम्बन-मधु ज्योति का, अन्धकार हर लेता।
छाया के स्पर्श से
कल्पित सुख मेरा भी प्राणों से रहित था,–
कल्पना ही एक
दूर सत्य के आलोक से,–
निर्जन-प्रियता में था मौन-दु:ख साथी बिना।
प्रतिमा सौन्दर्य की
हृदय के मंच पर
आई न थी तब भी,
पत्र-पुष्प-अर्ध्य ही
संचित था हो रहा
आगम-प्रतीक्षा में,–
स्वागत की वन्दना ही
सीखी थी हृदय ने।
उत्सुकता वेदना,
भीति, मौन, प्रार्थना
नयनों की नयनों से,
सिंचन सुहाग—प्रेम,
दृढ़ता चिबुक की,
अधरों की विह्वलता,
भ्रू-कुटिलता, सरल हास,
वेदना कण्ठ में,
मृदुता हृदय में,
काठिन्य वक्षस्थल में,
हाथों में निपुणता,
शैथिल्य चरणों में,
दीखी नहीं तब तक
एक ही मूर्ति में
तन्मय असीमता।
सृष्टि का मध्यकाल मेरे लिये।
तृष्णा की जागृति का
मूर्त राग नयनों में।
हुताशन विश्व के शब्द-रस-रूप-गन्ध
दीपक-पतंग-से अन्ध थे आ रहे
एक आकर्षण में
और यह प्रेम था!
तृष्णा ही थी सजग
मेरे प्रतिरोम में।
रसना रस-नाम-रहित
किन्तु रस-ग्राहिका!
भोग—वह भोग था,
शब्दों की आड़ में
शब्द-भेद प्राणों का—
घोर तम सन्ध्या की स्वर्ण-किरण-दीप्ति में!
शत-शत वे बन्धन ही
नन्दन-स्वरूप-से आ
सम्मुख खड़े थे!–
स्मितनयन, चंचल, चयनशील,
अति-अपनाव-मृदु भाव खोले हुए!
मन का जड़त्व था,
दुर्बल वह धारणा चेतन की
मूर्च्छित लिपटती थी जड़ी से बारम्बार।
सब कुछ तो था असार
अस्तु, वह प्यार?—
सब चेतन जो देखता,
स्पर्श में अनुभव—रोमांच,
हर्ष रूप में—परिचय,
विनोद; सुख गन्ध में,
रस में मज्जनानन्द,
शब्दों में अलंकार,
खींचा उसीने था हृदय यह,
जड़ों में चेतन-गति कर्षण मिलता कहां?
पाया आधार
भार-गुरुता मिटाने को,
था जो तरंगों में बहता हुआ,
कल्पना में निरवलम्ब,
पर्यटक एक अटवी का अज्ञात,
पाया किरण-प्रभात—
पथ उज्जवल, सहर्ष गति।
केन्द्र को आ मिले
एक ही तत्व के,
सृष्टि के कारण वे,
कविता के काम-बीज।
कौन फिर फिर जाता?
बँधा हुआ पाश में ही
सोचता जो सुख-मुक्ति कल्पना के मार्ग से,
स्थित भी जो चलता है,
पार करता गिरि-श्रृंग, सागर-तरंग,
अगम गहन अलंध्य पथ,
लावण्यमय सजल,
खोला सहृदय स्नेह।
आज वह याद है वसन्त,
जब प्रथम दिगन्तश्री
सुरभि धरा के आकांक्षित हृदय की,
दान प्रथम हृदय को
था ग्रहण किया हृदय ने;
अज्ञात भावना,
सुख चिर-मिलन का,
हल किया प्रश्न जब सहज एकत्व का
प्राथमिक प्रकृति ने,
उसी दिन कल्पना ने
पाई सजीवता।
प्रथम कनकरेखा प्राची के भाल पर—
प्रथम श्रृंगार स्मित तरुणी वधू का,
नील गगनविस्तार केश,
किरणोज्जवल नयन नत,
हेरती पृथ्वी को।
दिल्ली
क्या यह वही देश है—
भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र,
चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्माचर्य-दीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमण्डल में
उज्जवल, अधीर और चिरनवीन?—
श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता-गीत—सिंहनाद—
मर्मवाणी जीवन-संग्राम की—
सार्थक समन्वय ज्ञान-कर्म-भक्ति योग का?
यह वही देश है
परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
भारत का भाग्य चक्र?—
आकर्षण तृष्णा का
खींचता ही रहा जहाँ पृथ्वी के देशों को
स्वर्ण-प्रतिमा की ओर?—
उठा जहाँ शब्द घोर
संसृति के शक्तिमान दस्युओं का अदमनीय,
पुनः पुनः बर्बरता विजय पाती गई
सभ्यता पर, संस्कृति पर,
काँपे सदा रे अधर जहाँ रक्त धारा लख
आरक्त हो सदैव।
क्या यही वह देश है—
यमुना-पुलिन से चल
’पृथ्वी’ की चिता पर
नारियों की महिमा उस सती संयोगिता ने
किया आहूत जहाँ विजित स्वजातियों को
आत्म-बलिदान से:—
पढो रे, पढो रे पाठ,
भारत के अविश्वस्त अवनत ललाट पर
निज चिताभस्म का टीका लगाते हुए,–
सुनते ही खड़े भय से विवर्ण जहाँ
अविश्वस्त संज्ञाहीन पतित आत्मविस्मृत नर?
बीत गये कितने काल,
क्या यह वही देश है
बदले किरीट जिसने सैकड़ों महीप-भाल?
क्या यह वही देश है
सन्ध्या की स्वर्णवर्ण किरणों में
दिग्वधू अलस हाथों से
थी भरती जहाँ प्रेम की मदिरा,–
पीती थीं वे नारियां
बैठी झरोखे में उन्नत प्रासाद के?—
बहता था स्नेह-उन्माद नस-नस में जहाँ
पृथ्वी की साधना के कमनीय अंगों में?—
ध्वनिमय ज्यों अन्धकार
दूरगत सुकुमार,
प्रणयियों की प्रिय कथा
व्याप्त करती थी जहाँ
अम्बर का अन्तराल?
आनन्द धारा बहती थी शत लहरों में
अधर मे प्रान्तों से;
अतल हृदय से उठ
बाँधे युग बाहुओं के
लीन होते थे जहाँ अन्तहीनता में मधुर?—
अश्रु बह जाते थे
कामिनी के कोरों से
कमल के कोषों से प्रात की ओस ज्यों,
मिलन की तृष्णा से फूट उठते थे फिर,
रँग जाता नया राग?—
केश-सुख-भार रख मुख प्रिय-स्कन्ध पर
भाव की भाषा से
कहती सुकुमारियाँ थीं कितनी ही बातें जहाँ
रातें विरामहीन करती हुई?—
प्रिया की ग्रीवा कपोत बाहुओं ने घेर
मुग्ध हो रहे थे जहाँ प्रिय-मुख अनुरागमय?—
खिलते सरोवर के कमल परागमय
हिलते डुलते थे जहाँ
स्नेह की वायु से, प्रणय के लोक में
आलोक प्राप्त कर?
रचे गये गीत,
गये गाये जहाँ कितने राग
देश के, विदेश के!
बही धाराएँ जहाँ कितनी किरणों को चूम!
कोमल निषाद भर
उठे वे कितने स्वर!
कितने वे रातें
स्नेह की बातें रक्खे निज हृदय में
आज भी हैं मौन जहाँ!
यमुना की ध्वनि में
है गूँजती सुहाग-गाथा,
सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ!
आज वह ’फिरदौस’
सुनसान है पड़ा।
शाही दीवान-आम स्तब्ध है हो रहा,
दुपहर को, पार्श्व में,
उठता है झिल्लीरव,
बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में,
लीन हो गया है रव
शाही अंगनाओं का,
निस्तब्ध मीनार,
मौन हैं मकबरे:-
भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार,
टपक पड़ता था जहाँ आँसुओं में सच्चा प्यार!
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