Phanishwar Nath Renu Poems in Hindi: समाज की चेतना को जागृत करने के लिए हर सदी में कई ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने नवीन पीढ़ी को साहस और समर्पण भाव के साथ जीवन जीना सिखाया है। ऐसे ही महान कवियों की श्रेणी में “फणीश्वरनाथ रेणु” का भी नाम आता है। फणीश्वरनाथ रेणु की कविताएं आज भी सामाजिक सद्भावना को बढ़ाने का प्रयास करती हैं।
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Phanishwar Nath Renu Poems in Hindi
इस ब्लॉग में Phanishwar Nath Renu Poem in Hindi | फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की बेहतरीन कविताएं पर प्रकाश डाला गया है, जिनका उद्देश्य साहित्य के साथ आपका परिचय करवाना है। फणीश्वरनाथ रेणु की कविताएं कुछ इस प्रकार है;
मुझे तुम मिले
मृतक-प्राण में शक्ति-संचार कर;
निरंतर रहे पूज्य, चैतन्य भर!
पराधीनता—पाप-पंकिल धुले!
मुझे तुम मिले!
रहा सूर्य स्वातंत्र्य का हो उदय!
हुआ कर्मपथ पूर्ण आलोकमय!
युगों के घुले आज बंधन खुले!
मुझे तुम मिले
सुंदरियो
सुंदरियो-यो-यो
हो-हो
अपनी-अपनी छातियों पर
दुद्धी फूल के झुके डाल लो !
नाच रोको नहीं।
बाहर से आए हुए
इस परदेशी का जी साफ नहीं।
इसकी आँखों में कोई
आँखें न डालना।
यह ‘पचाई’ नहीं
बोतल का दारू पीता है।
सुंदरियो जी खोलकर
हँसकर मत मोतियों
की वर्षा करना
काम-पीड़ित इस भले आदमी को
विष-भरी हँसी से जलाओ।
यों, आदमी यह अच्छा है
नाच देखना
सीखना चाहता है।
निवेदन
फिर बासी आँसुओं की फुहार में नहा
आई पुजारिन,
सवेरे-सवेरे—
हरसिंगार तले!
पूजा के साज सजे,
मंदिर की सीढ़ियों पर
पदचाप बजे!
देवता जगे,
(होश, देवता का आज दुरुस्त हुआ
सवेरे-सवेरे!)
रिक्त पद्म आसन!
पाद पद्म में झुकती गर्दन को,
बाहुओं में समेटे,
बोल सके!
“पूजा हो चुकी तुम्हारी—पहले ही
सवेरे-सवेरे!
हरसिंगार तले!”
तुम पर निवेदित इन फूलों से पूछो!
घुँघराली लटों की लहरों में
क़ैद थर-थर काँप रहे
दो जीवित फूल!
देवि!
…निवेदन है!
निवेदन है!
कौन तुम वीणा बजाते हो ?
कौन तुम वीणा बजाते?
कौन उर की तंत्रियों पर
तुम अनश्वर गान गाते?…
सुन रहा है यह मन अचंचल
प्रिय तुम्हारा स्वर मनोहर
विश्वमोहन रागिनी से
प्राणदायक द्रव रहा झर
ध्यान हो तन्मय बनाते
सकल मन के दु:ख नसाते
कौन तुम विष-वासना को
प्रेममय अमृत पिलाते?
कौन तुम वीणा बजाते?
बन गए वरदान—
जीवन के सकल अभिशाप तुझको!
आत्म-कल्याणी बने दु:ख,—
वेदना, परिताप मुझको!
तुम ‘अहं’ को हो बुलाते
‘द्वैत’ जीवन का मिटाते
कौन तुम अमरत्व का
संदेश हो प्रतिपल सुनाते!
कौन तुम वीणा बजाते?
नूतन वर्षाभिनंदन
नूतन का अभिनंदन हो
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो!
नव-स्फूर्ति भर दे नव-चेतन
टूट पड़ें जड़ता के बंधन;
शुद्ध, स्वतंत्र वायुमंडल में
निर्मल तन, निर्भय मन हो!
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!
प्रति अंतर हो पुलकित-हुलसित
प्रेम-दिए जल उठें सुवासित
जीवन का क्षण-क्षण हो ज्योतित,
शिवता का आराधन हो!
प्रेम-पुलकमय प्रति जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!
खड्गहस्त!
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार!
भूखा तन के, प्यासे मन से
युग-युग से लड़ते जीवन से
ऊब चुके हैं हम बंधन से
जग के तथाकथित संयम से
भीख नहीं, हम माँग रहे हैं अब अपना अधिकार!
श्रम-बल और दिमाग़ खपावें,
तुम भोगो, हम भिक्षा पावें
जाति-धर्म-धन के पचड़े में
प्यार नहीं हम करने पावे
मुँह की रोटी, मन की रानी, छीन बने सरदार!
रक्खो अपना धरम-नियम अब
अर्थशास्त्र, क़ानून ग़लत सब
डोल रही है नींव तुम्हारी
वर्ग हमारा जाग चुका अब
हमें बसना है फिर से अपना उजड़ा संसार
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार!
अग्रदूत
‘हमारा सब कुछ चला गया!’
—रो उठा सर्वहारा!
बांग्ला देश के आगत एक जन
‘तुम्हारा सब कुछ चला गया?’
नहीं-नहीं-नहीं, कुछ भी नहीं गया
विश्वास करो, कुछ भी नहीं गया
विवेक तो बचा हुआ है न
—जानते हो न?
तब, सब कुछ है
नीति
मानते हो न?
तब, सब कुछ है
देश की ‘माँ’ के रूप में देखा है न?
तुम्हारा सब सुरक्षित है
जीवितों की तरह जीना चाहा था न?
तब, तुम्हें कौन मार सकता है?
अन्याय के दिव्य प्रतिवाद से ही जीवन जलता है
प्रलोभन को जीत लिया है—
और क्या चाहिए?
देश के लिए
प्राण देने को ही प्रस्तुत
तुम्हीं तो हो अग्रदूत—
फिर भी कहते हो—
‘सब कुछ चला गया हमारा!’
बोलो-बोलो
देश
माँ मेरी है—
हम हैं उसके सपूत
हम हैं अजेय
हम हैं अग्रदूत।
मिनिस्टर मंगरू
‘कहाँ गायब थे मंगरू?’-किसी ने चुपके से पूछा।
वे बोले- यार, गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था।
बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना-
कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का।
सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी,
कि कब सोया रहूंगा औ’ कहाँ जलपान खाऊंगा।
कहाँ ‘परमिट’ बेचूंगा, कहाँ भाषण हमारा है,
कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊंगा।
‘सुना है जाँच होगी मामले की?’ -पूछते हैं सब
ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के,
‘अंहिसा लाउंड्री’ में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।
बहुरूपिया
दुनिया दूषती है
हँसती है
उँगलियाँ उठा कहती है …
कहकहे कसती है –
राम रे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-झबड़
आल-जाल-बाल
हाल में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन …….
अ… खा… हा… हा.. ही.. ही…
मर्द रे मर्द
दूषती है दुनिया
मानो दुनिया मेरी बीवी
हो-पहरावे-ओढ़ावे
चाल-ढाल
उसकी रुचि, पसंद के अनुसार
या रुचि का
सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,
मैं
मेरा पुरुष
बहुरूपिया।
जागो मन के सजग पथिक ओ!
मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगनित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उतारे!
हौले, हौले दखिन-पवन-नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे
कब से तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे!
इमरजेंसी
इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने
हर मौसम आकर ठिठक जाता है
सड़क के उस पार
चुपचाप दोनों हाथ
बगल में दबाए
साँस रोके
ख़ामोश
इमली की शाखों पर हवा
‘ब्लाक’ के अन्दर
एक ही ऋतु
हर ‘वार्ड’ में बारहों मास
हर रात रोती काली बिल्ली
हर दिन
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई
रक्तरंजित सुफ़ेद
खरगोश की लाश
‘ईथर’ की गंध में
ऊंघती ज़िन्दगी
रोज़ का यह सवाल, ‘कहिए! अब कैसे हैं?’
रोज़ का यह जवाब– ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा… यहाँ पर… मीठा-मीठा दर्द!
इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ
हड़हड़-भड़भड़ करती
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी!
सैलाइन और रक्त की
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी!
-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी!
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
और तमाम चुपचाप हवाएँ
एक साथ
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी!
अपने जिले की मिट्टी से
कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी
इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ
तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से
दरिया औ’ दयारों से
सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से
कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से?
कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का?
तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित
सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ
उठाकर चंद ढेले
उठाकर धूल मुट्ठी-भर
कि मिट्टी जी रही है तो!
बला से जलजला आए
बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ
अगर ज़िंदी रही तू
फिर न परवाह है किसी की
नहीं है सिर पे गोकि ‘स्याह-टोपी’
नहीं हूँ ‘प्राण-हिन्दू’ तो हुआ क्या?
घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो!
सुनाता हूँ नहीं–
गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो!
सिर्फ़ ‘हिंदी’ रहा मैं
सिर्फ़ ज़िंदी रही तू
और हमने सब किया अब तक!
सिर्फ़ दो-चार क़तरे ‘ध्रुव’ का ताज़ा लहू ही
बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा
कमीनी हरक़तों को रोक लेगा
कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी
(इसी से डर रहा हूँ!)
कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी
शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की
तुम्हारे जिस्म पर पड़ने नहीं देंगे
कदम नापाक उन फितनापरस्तों का !
सजग हम हैं कि तू आबाद रह मिट्टी
हँसो तू कमल के संग रोज़ अपने प्रिय तलैयों में
सरस सरसों के खेतों में, बसंती डाल घूँघट
सदा तू मुस्कुराओ,
हरे मैदान में, खलिहान में तू मस्त इतराओ !
सजग हम हैं ही प्यारी पाक मिट्टी
कि इंक़लाबी रूह रुपौली! की अभी भी
उन्हीं ज़ज़बों में अब तक है मचलती ।
(ध्रुव=ध्रुव कुंडू सन 1942 के आंदोलन में
पूर्णियाँ में बारह वर्ष की उम्र में अंग्रेजी-फौज
की गोलियों के शिकार होकर शहीद हुए ।)
उम्मीद है कि यहां दी गई Phanishwar Nath Renu Poems in Hindi आपको खूब पसंद आई होगी। इसी तरह की कविताओं के लिए आप हमारे चैनल को सब्सक्राइब कर सकते हैं। यहां तक पढ़ने के लिए आप सभी का धन्यवाद! आप हमारी दूसरी साइट Ratingswala को भी विजिट कर सकते हैं।
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I am a big fan of Renu. His stories and novels based on rural set-ups are next to only Premchand. The flavour he brings about the village life in all its glory and the faults is unparalleled. Thanks for posting his poems.
It would be nice if, like Renu, you could also post here the poems of Nirala, Pant, Agyeya, Bachchan, Dinkar, Mahadevi Verma, and other great poets. Of course, after taking due consideration of the copyright issues.