(The world has become self-centered. All of us are so stuck on today that we have stopped thinking about the future. We have an entitlement complex about getting things, but with nil sense of our duties. We need instant gratification. It’s the ‘take all you can’ world without any care for what we need to give and leave for our next generation.)
कैसे चले ये जहाँ?
कहीं प्यार की बयार उठी,
तो कहीं नफ़रतों के तूफ़ान चले,
कहीं सत्य की लड़ाई छिड़ी ,
तो कहीं झूठ के तीर चले.
इस रंग बदलती
दुनिया में,
कौन जाने,
किसका पलड़ा भारी यहाँ?
कैसे चले ये जहाँ?
ख़ानाबदोशों की बस्ती है,
यहाँ हर कोई बंजारा है,
सर पे छत नहीं है,
पर सारा जहाँ हमारा है.
आसमान पे है नज़र,
पर ज़मीन नहीं नीचे यहाँ.
कैसे चले ये जहाँ?
हक़ की पड़ी हुई है,
फ़र्ज़ की कोई फिक्र नहीं,
हर चीज़ की चाहत है,
देने की कोई जिक्र नहीं.
धरा को भी हमने,
बाँट दिया लकीरों में यहाँ.
कैसे चले ये जहाँ?
सबके अपने तरन्नुम हैं,
सबके अपने तराने हैं.
सबके अपने ही नग़में हैं,
सबके अपने अफ़साने हैं.
सब हैं अपनी ही धुन में,
दूसरों के गीत कौन सुने यहाँ?
कैसे चले ये जहाँ?
दुनिया की सियासत में,
कुदरत की इनायत खो गई.
खुदगर्ज़ी के आलम में,
इंसानी विरासत सो गई.
सभी परेशान हैं
आज के लिए,
अपने लिए,
कल और औरों की फिक्र किसे यहाँ?
कैसे चले ये जहाँ?
(नलिन कुमार ठाकुर)
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