शहीद की वीरपत्नी की कलम से | हिंदी कविता
वो सिसकियाँ, ना हुई अभी भी कम,
चुड़ियों की खनक, खतम हो गई।
जब तुम लिपटकर,
तिरंगे में घर आ गए,
मैं फिर से तुम्हारी दिवानी हुई।
मौत तो रोज मरते है लोग यहाँ,
एक ना एक दिन सब होंगे…. फना ।
तुम्हारी शहादत, मेरे हमदम…
प्यार हमारा अमर कर गई ।
जब तुम लिपटकर,
तिरंगे में घर आ गए,
मैं फिरसे तुम्हारी दिवानी हुई।
ये ज़माना तुम्हें याद रखे ना रखे ,
अपनों के दिल में तुम रहोगे सदा।
है नाज़ मुझे,वीरपत्नी हूँ मैं।
कोई गल नही मेरी सारी खुशियाँ गई ।
जब तुम लिपटकर,
तिरंगे में घर आ गए,
मैं फिर से तुम्हारी दिवानी हुई।
जब बेटी तुम्हारी पूछेगी मुझसे,
पापा क्यों गए मिलने रबसे?
कहूंँगी उससे बडे नाज़ों से,
भगवान को भी ऐसे, वीरों की जरूरत थी।
जब तुम लिपटकर,
तिरंगे में घर आ गए,
मैं फिरसे तुम्हारी दिवानी हुई।
मांँग का सिंदूर ना मिटाऊंगी कभी ,
एक जिस्म एक जाँ थे ना भूलुंगी कभी।
जब छलकेगी आँखे तुम्हें सोचकर,
तुम्हारी वर्दी से लिपटकर मैं खो जाऊँगी।
जब तुम लिपटकर,
तिरंगे में घर आ गए,
मैं फिर से तुम्हारी दिवानी हुई।
कविराज :- डाॅ. महेश बालपांडे
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