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Hindi poem on society and social issues | सामाजिक समस्या पर आधारित कविता

By Ranjan Gupta

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Hindi poem on society and social issues

Hindi poem on society and social issues: भारत एक विविधताओं का देश है। यहां कई समाज एक साथ निवास करते हैं और यही भारत को एक विशाल और खूबसूरत देश बनाता है। यहां के लोग विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं। विभिन्न प्रकार का खाना खाते हैं, अलग-अलग त्यौहार मनाते हैं और भिन्न भिन्न धर्मों का पालन करते हैं। देश में इतनी विविधता होने से कई प्रकार की समस्याएं भी सामने आती हैं। समाज का प्रारुप भी आज बदल चुका है। इसी को संदर्भित करती हुई कविता हम आपके सामने लेकर पेश हुए हैं।

कहाँ लुप्त हुआ सरल संसार? | सामाजिक समस्या पर आधारित कविता

यह जो रिश्तों की डोर है
कुछ उलझ गई हैं ज्यादा
और कुछ सुलझ गई हैं ज्यादा

माना बदला है प्रारुप समाज का
परंतु मानवीय रुप तो भिन्न नहीं
प्रकट हो जाना यथार्थ का

स्थिर कर देता उसके हृदय को
परंतु मान लेना उस यथार्थ को
आज के मानव को स्वीकार नहीं

जब केंद्रित हो खुशियाँ
एक बनावटी किरदार पर
तो कहाँ प्रकट होगी खुशी
यूँ सच्चे आचार पर

घटता मूल्य शुद्ध सरल हृदय का
कुछ तो दर्शा रहा
अपने ही बनाए माया जाल में
मनुष्य हर क्षण फँस रहा

यथार्थता में ही छिपा है
उपचार सभी जटिलताओं का
परंतु छुपाना उस यथार्थता को ही
मानो उद्देश्य हो इस कृत्रिम संसार का।

-NISHTHA SINGH

यह कविता समाज की उस वास्तविकता को उजागर करने का प्रयास करती है जहाँ समाज अपनी ही बनाई जटिलताओं में उलझा हुआ है।

Hindi poem on society and social issues

दलित विमर्श | Hindi poem on society and social issues

दर्द है!
और जहाँ था वो सदियों से,
वहीं है।

और, नहीं है,
तो हाँ मगर इंसान को
इस टूटती तक़दीर में,
हर ख़लिश के बाद का
एहसास नहीं है।

अपनी क़िस्मत के फटे पन्नों को
सीने के लिए
जा रहा है वो आदमी,
पाँव में छाले लिए।

हाथों से पत्थर तोड़ता है
घर तुम्हारा जोड़ता है,
की उसके छप्पर जा सके,
उतरन दिवाली के लिए।

इन उदास आँखों में,
ज़रा झांकिए मेरे हुज़ूर,
बेजान जाती रोशनी है
सूर्य जैसी आकृति।

और तुम्हारे क़ौसैन से
कुछ ही दूरी पर है पड़ी,
एक जर्ज़र मक़बरे सी,
काँपती है संस्कृति।

जिनके फीते काटते हो,
उनकी नींव, उसका खून है।
जिनके जूते चाटते हो,
उनके नाम उसका खून है।

खून बहा,
बहता रहा…
आहट तक करता नहीं,
छोटी जात का था,
बह गया,
साहस तक करता नहीं।

आग लगी, लगती रही,
जले छप्पर छोटी जात के,
बाढ़ आई, आती रही,
बहे छप्पर छोटी जात के,

सूरज की तपती छाँव में,
जो खेलते मासूम थे,
निमोनिया से मर गए,
बच्चे वो छोटी जात के।

प्रतिरोध होता ही रहा,
वो बाप रोता ही रहा,
कौन सुनता था वहाँ,
इस संस्कृति के शोर में,
बँधी पैसों की डोर में
दब गई वो बात भी।
दब गया वो बाप भी।

फाइलों में हो गई बंद
एक और पद-दलित पुकार…
है जो कारागार में,
उस सभ्यता की चीत्कार
सुनाई देती है मगर,
कोई भी सुनता नहीं।

वेदना ही घट चुकी है,
क्यूंकि आह इतनी घुट चुकी है।
आह जो निकली मगर…
कौन सी है?
किसने, किससे, कब कही है?
मेरे दोस्त, मेरे जानी, मेरे भाई!
खुदा की खैरियत का शुक्रिया…
की तुम्हें नहीं है!

पर,
यह मत कहो की दर्द नहीं है।
क्यूंकि…
दर्द है!
और जहाँ था वो सदियों से,
वहीं है।

-Puneet Singh Ratnu ‘Irshaad’

यह कविता दुख की निरंतरता, विशेष रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों के व्यवस्थित उत्पीड़न पर एक कच्चा और अडिग चिंतन है। यह दलितों के श्रम और बलिदान को उन लोगों की उदासीनता के साथ जोड़ता है जो उनके परिश्रम से लाभान्वित होते हैं।

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Ranjan Gupta

मैं इस वेबसाइट का ऑनर हूं। कविताएं मेरे शौक का एक हिस्सा है जिसे मैनें 2019 में शुरुआत की थी। अब यह उससे काफी बढ़कर है। आपका सहयोग हमें हमेशा मजबूती देता आया है। गुजारिश है कि इसे बनाए रखे।

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